ईरान-इज़राइल युद्ध में इंसानियत हारी। पढ़िए एक भावनात्मक रिपोर्ट

सैफी हुसैन
सैफी हुसैन

कभी वह ख़बरों में था, कभी खुफ़िया रिपोर्टों में, और फिर एक दिन हकीकत बन गया — ईरान और इज़राइल के बीच जंग, वो भी उस वक्त जब दुनिया पहले ही नफरत और बारूद से थकी हुई थी। इस युद्ध में केवल मिसाइलें नहीं दागी गईं, माँओं की ममता, बच्चों के सपने, और इंसानियत की उम्मीदें भी चिथड़े-चिथड़े हो गईं। जहाँ एक पक्ष इसे “आत्म-सम्मान की रक्षा” कह रहा था, वहीं दूसरा “रक्षा का जवाब”।

डार्लिंग, धर्म कोई स्टार्टअप नहीं है! पहले ग्रंथ पढ़ो, फिर प्रवचन दो

लेकिन सच्चाई यह थी कि मरे दोनों ओर सिर्फ इंसान थे, और हारी सिर्फ शांति थी। इस रिपोर्ट में हम ना तो किसी को दोषी ठहराएंगे, ना ही किसी को विजेता बताएंगे। हम बस उन आवाज़ों को जगह देंगे — जो बंकरों से नहीं, टूटे घरों से निकलीं। जो युद्ध की रणनीति नहीं, संवेदना की चीख़ थीं

🌩️ जंग शुरू नहीं हुई, लाठी नहीं उठी — फिर भी लोग मरने लगे

कभी बयानबाज़ी, कभी सीधी धमकी, और फिर वो हुआ जिसे पूरी दुनिया बस डर के साथ देख रही थीईरान और इज़राइल आमने-सामने आ गए। जहां एक तरफ़ तेल अवीव के आसमान में धुआं था, वहीं तेहरान में मिसाइलों की गूंज। और इस जंग में हार किसी एक देश की नहीं हुई, इंसानियत की हुई।

ईरान बोले: “हमने हमला नहीं किया, हमने जवाब दिया है”

ईरान की आधिकारिक लाइन बेहद स्पष्ट थी, हम युद्ध नहीं चाहते थे, लेकिन हम घुटने टेकने भी नहीं आए हैं।

ईरानी सूत्रों का दावा था कि इज़राइल ने पहले उनके सैन्य अड्डों और एक उच्च-स्तरीय अधिकारी को निशाना बनाया। जब ईरान ने जवाब दिया, तो इज़राइल हैरान और पीछे हटा हुआ नजर आया

ये तो ट्रेलर था, असली फिल्म अभी बाकी थी…

ईरानी सेना की तैयारियाँ देख दुनिया चौंक गई। लंबी दूरी तक मार करने वाले हथियार, ड्रोन स्क्वॉड, सटीक निशाने — ये सब युद्ध में उतरे।

ईरानी सूत्रों के मुताबिक, जो अब तक दिखा, वो बस शुरुआत थी। हम कई महीनों तक लड़ सकते थे। लेकिन शुक्र है कि जंग रुकी।

यह बयान केवल ताकत नहीं, जवाबदेही का प्रदर्शन था।

इज़राइल का पक्ष: “हमने मीडिया खोला, ईरान ने बंद किया”

इज़राइल का कहना था कि उन्होंने मीडिया को खुली छूट दी — ताकि दुनिया देख सके कि ईरान ने नागरिक ठिकानों को निशाना बनाया। वहीं ईरान पर आरोप था कि उसने सेंसरशिप लगाई और असली तस्वीरें दुनिया तक न पहुँचने दीं। पर असली सवाल यह नहीं कि कौन कितना दिखा सका — सवाल यह है कि कौन कितना सह गया

ईरान का मीडिया: ‘बशारत-ए-फ़तह’ और आत्म-सम्मान की जीत

ईरान के सरकारी मीडिया चैनलों पर मंगलवार सुबह से एक ही कैप्शन बार-बार चमक रहा था— यहूदीवादी दुश्मनों की ओर से लादी गई जंग में बशारत-ए-फ़तह ऑपरेशन के तहत जीत हासिल की गई है।”
यह वही ऑपरेशन था जिसमें ईरान ने अमेरिका के क़तर स्थित अल-उदैद एयरबेस पर जवाबी हमला किया। सरकारी चैनलों ने इसे एक “विजय का पैग़ाम” बताया और अमेरिका को ‘शांति की भीख मांगता हुआ’ पेश किया। ईरानी विदेश मंत्री अब्बास अराग़ची ने भी स्पष्ट किया कि, हमने जंग शुरू नहीं की। इज़राइल पहले रुके, हम जवाब नहीं देंगे।

सरकारी रेडियो और टीवी चैनल वीआईआरआई ने यहां तक कहा कि, “अब सीज़फायर का ऐलान ट्रंप कर रहे हैं, क्योंकि अब उन्हें मालूम हो गया है कि ईरान कोई कमजोर देश नहीं है।”

ईरान की कहानी में यह जंग आत्मरक्षा की लड़ाई थी, एक ऐसा जवाब जो सम्मान के लिए दिया गया था।

इज़राइल का मीडिया: ‘अभूतपूर्व सैन्य सफलता’ और पराजित ईरान

इज़राइल की मीडिया एक बिलकुल ही अलग कहानी सुना रही थी। वाल्ला न्यूज और चैनल 14 जैसे दक्षिणपंथी मीडिया संस्थानों ने पूरे सैन्य अभियान को “ऐतिहासिक विजय” करार दिया।
उनकी हेडलाइन थी: ईरान की हार, परमाणु कार्यक्रम का अहम हिस्सा तबाह, अब ईरान डर गया है।

सरकारी प्रसारणकर्ता ‘कान’ के संवाददाताओं ने यहां तक दावा किया कि “ईरान अब अपने पड़ोसियों को धमका नहीं सकेगा।”
नेतन्याहू समर्थक सांसदों ने इसे ईरान की रणनीतिक हार और इसराइली शक्ति का प्रदर्शन बताया।

लेकिन वहीं युद्धविराम के बाद जब नेतन्याहू ने शांति प्रस्ताव स्वीकार किया, तो चैनल 14 ने अपने कवरेज को “फर्ज़ी सीज़फायर” बताते हुए आलोचना शुरू कर दी।

जब एक ही युद्ध की दो सच्चाइयाँ दिखीं

दोनों देशों की मीडिया एक-दूसरे के खिलाफ साइकोलॉजिकल वार लड़ रही हैं। ईरान जहां इसे सम्मान और मज़हबी कर्तव्य की विजय कह रहा है, वहीं इज़राइल इसे रणनीतिक जीत और सैन्य श्रेष्ठता का सबूत बता रहा है। पर दोनों ही साइड्स के टीवी स्क्रीन पर जो नहीं दिखा,
वो था —बमबारी में दबे बच्चों के खिलौने, मलबे में दबी चीखें, और सीज़फायर के बावजूद टूट चुके परिवार

युद्ध में सच्चाई अक्सर मर जाती है, साथ ही इंसान भी

जब मीडिया सरकारी घोषणाओं से ज़्यादा राष्ट्रवाद का झंडा उठाने लगे, तो सच्चाई अक्सर ख़ामोश कर दी जाती है। ईरान और इज़राइल दोनों की मीडिया एकतरफा विजय का ऐलान कर रही है, पर मैदान में पड़े जले घर, अस्पतालों की भीड़ और मातम मनाते घर किसकी जीत बता रहे हैं?

अब इलाज ज़ख्मों का नहीं, भरोसे का होना चाहिए

अब जब लड़ाई थम गई है, सरकारों की ज़िम्मेदारी बनती है कि जो मरे नहीं, जो बच गए हैं, उन्हें संभाला जाए।

अस्पतालों में दवा से ज़्यादा दिलासे की ज़रूरत है।

गलियों में बच्चों की हँसी लौटे।

और माँओं को रात में धमाके के डर से नींद न उड़ जाए।

युद्ध कोई समाधान नहीं, सिर्फ़ सिलसिला है तबाही का

हर गोली, हर मिसाइल के बाद एक ख़ामोशी आती है — पर यह ख़ामोशी राहत की नहीं, पछतावे की होती है।

क्या होता अगर बातचीत होती? क्या होता अगर हम मान लेते कि सरहदें इंसानों से बड़ी नहीं होतीं?

ईरान की अंतिम पुकार: “हमें अमन चाहिए, लेकिन आत्म-सम्मान से”

ईरानी नेतृत्व ने स्पष्ट कहा: “हमें लड़ाई पसंद नहीं, लेकिन अगर सम्मान पर आंच आएगी, तो हम पीछे नहीं हटेंगे।”

उन्होंने यह भी कहा कि अगर संवाद की गुंजाइश हो, तो हथियार नीचे रखने वाले हम पहले होंगे।

ये कविता काफी कुछ कहती है पढ़िए इसे।

“युद्ध की राख में इंसान”

कवि – आशा शर्मा 

गूँजा नभ में गर्जन भारी,
मृत्यु चली बन के फौजी सवारी।
तोपों की बोली आग बुझे,
धरती पूछे — “क्यों जलते बारी?”

सरहद पर दो काग़ज़ के नक्शे,
बीच में दबे हज़ारों सपने।
इधर शहीद का बेटा रोया,
उधर विधवा की टूटी चूड़ियाँ थमीं अपने।

ईरान बोले — “सम्मान बचाया”,
इज़राइल कहे — “हक़ जताया।”
पर कौन बताए उस माँ को,
जिसने बेटा दोनों में से कोई नहीं पाया।

बमों की भाषा कौन समझे?
रहमत की अब चिट्ठियाँ कहाँ जाएँ?
जहाँ रोटी भी हथियार बन जाए,
वहाँ इबादत की मीनारें क्या बतलाएँ?

मीडिया बोले — “हमने देखा”,
राजनीति बोले — “हमने झेला।”
कवि बोले — “मैंने महसूस किया”,
जब आँसुओं से भीग गई माटी अकेला।

हथियारों के कारख़ानों में,
इंसानियत रोज़ गिरवी रखी जाती है।
सच पूछो तो युद्ध वो होता है,
जहाँ जीत नहीं, सिर्फ़ हार बाँटी जाती है।

एक दिन जब इतिहास लिखेगा,
शब्द नहीं, शोक से भरेगा पन्ना।
तब पूछेगा कोई — “क्यों लड़े थे?”
और उत्तर होगा —
“क्योंकि हमें समझ न आया मनुष्य होना।

EPFO एडवांस निकासी सीमा ₹5 लाख हुई, तीन दिन में सेटलमेंट की गारंटी

Related posts